कालीनाथ कालेश्वर महादेव मंदिर कांगड़ा के ज्वालाजी शहर से 12 किमी की दूरी पर ब्यास नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर कालेश्वर शहर में स्थित है, जो अपने प्राचीन स्मारकों, ललित पत्थर के काम और प्राचीन पौराणिक कथाओं के लिए लोकप्रिय है।
मंदिर को कलेसर के नाम से भी जाना जाता है और यहां पूजा करने वाले शिव को माता चिंतपूर्णी का महा रुद्र माना जाता है। महा शिवरात्रि उत्सव के साथ-साथ श्रावण (हिंदू माह) के महीने में इस स्थान पर बड़ी संख्या में भक्त आते हैं। मंदिर व्यास नदी के तट पर पाया जाता है और एक आदर्श ध्यान स्थल के रूप में प्रकट होता है। इस मंदिर के बगल में एक हिंदू श्मशान घाट दिखाई देता है।
कालीनाथ कालेश्वर महादेव मंदिर
ऐसा माना जाता है कि प्राचीन काल में, पांडव अपने वनवास के दौरान इस स्थान पर गए और रुके थे। कालेश्वर महादेव मंदिर मुख्य रूप से पर्यटकों के बीच अपने शिवलिंगम और इसके पास स्थित एक पवित्र तालाब के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर 400 साल पुराना बताया जाता है और इसका निर्माण खुद पांडवों ने शुरू किया था और कटोच वंश के राजा ने इसे जारी रखा था। बैसाखी के अवसर पर यहां लगने वाला मेला पर्यटकों के बीच एक और प्रमुख आकर्षण है।
हालांकि यह मंदिर एक छोटे से गांव में है, फिर भी आपको मंदिर समिति द्वारा प्रदान की जाने वाली एक साधारण रहने की सुविधा मिल जाएगी, हालांकि यह उल्लेख नहीं है कि भीड़ के समय में, वे भरने के लिए बाध्य हैं। सदाबा नामक स्थान पर कालेश्वर मंदिर से लगभग 7 किमी की दूरी पर टैक्सी और बसों का लाभ उठाया जा सकता है।
मंदिर के देखभाल करने वालों और आसपास के लोगों की मान्यता के अनुसार, हर साल मानसून के समय व्यास नदी का प्रवाह तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि यह शिव लिंगम तक नहीं पहुंच जाती। शिवलिंग की जलाहरी तक पानी पहुंचने के बाद यह कम हो जाता है।
कालीनाथ कालेश्वर महादेव मंदिर का इतिहास
हिमाचल में पड़ने वाले कांगड़ा देहरा केपरागपुर गांव में अवस्थित श्री कालीनाथ महाकलेशवर महादेव मन्दिर ब्यास नदी के तट पर है। यहां पर स्थापित शिवलिंग भी अपने आप में अद्वितीय है। मान्यता है कि इस शिवलिंग महाकाली और भगवान शिव दोनो का वास है। इसके समीप ही श्मशानघाट है। यहां पर हिन्दू धर्म के लोग अपने प्रियजनों का अन्तिम संस्कार करने यहां आते है। महां शिवरात्रि पर यहां बड़े पैमाने पर मेला लगता है। भगवती दुर्गा की दस महाविधाओं में से एक है महाकाली। जिनके काले और डरावने रूप की उत्पति राक्षसों का नाश करने के लिए हुई थी। यह एक मात्र ऐसी शक्ति है जिन से स्वयं काल भी भय खाता है। उनका क्रोध इतना विकराल रूप ले लेता है कि संपूर्ण संसार की शक्तियां भी उनके गुस्से पर काबू नहीं पा सकती। उनके इस कोध को रोकने के लिए स्वयं उनके पती भगवान शंकर उनके चरणो में आकर लेट गए थे। उस समय महाकाली का क्रोध चरम पर था। उन्हे कुछ भी सुध-बुध न थी। अतः भगवान शिव पर उन्होने अपना पांव रख दिया था। अनजाने में हुए इस महापाप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें वर्षों तक हिमालय में प्रायश्चित के लिए भटकना पड़ा था। सतयुग के समय भगवान शिव से वरदान पा कर दैत्य अत्यंत शक्तिशाली हो गए। उनके पाप कर्मों से धरती माता थरथाने लगी। भगवान शिव ने योगमाया को आदेश दिया की वह महाकाली का रूप धार कर असुरों का नाश कर दें उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव भी दैत्य रूप में आ गए और दोनो में विकराल युद्ध हुआ। जिससे कि देवता तक कांप उठे। महाकाली महादेव को राक्षस जान उनपर प्रहार करने लगी तो उन्हें भगवान शिव का रूप जिसे देखते ही उनका क्रोध शांत हो गया। अपनी भूल का प्रायश्चित करने के लिए वह हजारों वर्षों तक हिमालय में भटकती रही। माना जाता है कि ब्यास नदी के तट पर जब महाकाली भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए समा में मग्न हो गई तो उनके तप के प्रभाव से प्रसन्न हो कर भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिए और उन्हें उनके पाप से मुक्त किया।
इस तरह से महाकाली को भूलवश हुए अपने महापाप से मुक्ति मिली। तभी वहां ज्योर्तिलिंग की स्थापना हुई थी और मन्दिर का नाम श्री कालीनाथ महाकालेश्वर महादेव मन्दिर पड़ा। सतयुग से आरंभ हुआ इस शिवलिंग का पूजन आज तक होता आ रहा है।